24 Nov 2009

कदम्ब का पेड़


Here is a moving poem about wishes of a child to climb a tree on the river bank and play a tiny wooden flute to surprise his mother. In this high-tech age of computer games, this poem reminds us how great joy can be derived from simple things in life - Rajiv Krishna SaxenaKeywords: love for motherland, Mother India, dedication, devotion, self sacrifice, wish to give more, son

तितली

सुंदर तितली सुंदर तितली
फुल फुल पर जाती हैं
मेरा तितली सुंदर तितली
आओ आओ मेरे प्यारे

कितने सुंदर कितने प्यारे
आओ आओ मेरे प्यारे
रंग की राणी तितली राणी
मेरी राणी तितली राणी



रेवती पि
कक्षा -

18 Nov 2009

नारी

हे नारी तुझ में हें ताकत
बन्धनों को तोड़ने की
हे प्यारी तुझ में हे हिम्मत
असमान को छुने की
हे नारी तुझ में हे क्षमता
इस दुनिया को चलाने की
हे जननी तुझ में ही शक्ती
नई जन्म देने की
हे स्त्री तुझ में ही बुद्धि
अपनी ज़िन्दगी पहचानने की

6 Nov 2009

इंदिरा गांधी


१९ नवम्बर १९१७ में उतर प्रदेश के अलाहाबाद जिल्ले में जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू की बेटी इंदिरा का जन्म हुआ। भारत के पहला वनिता प्रधान मंत्री श्रीमती गाँधी के शासन काल में भारत विश्व का एक प्रबल शक्ति के रूप उबरा । अपनी ग्यारह साल की उम्र में बच्चों की ' monkey brigrade ' बनाकर वह स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सहयोग दी। १९३८ में कांग्रस पार्टी में शामिल हुए इंदिरा की शादी १९४२ में पत्रकार फिरोस गांधी से हुआ। १९४२ में उनको ब्रिटिश शासन ने जेल भेजा। १९५९ में लाल बहादुर शास्त्री के काबिनेट में उनको मंत्री बनाया । १९६४ में नेहरू के निधन के बाद उनको कांग्रस पार्टी का प्रसिदंत चुना गया। शास्त्री की अकाल निर्यान के बाद १९६६ में भारत का प्रधान मंत्री का शपथ ली। १९७१ के चुनाव में अपनी पार्टी को जिताने में सफल हुए इंदिराजी दुबारा प्रधानमन्त्री का शपथ लीजयप्रकाश नारायण के नेत्रुत्व में इंदिरा के ख़िलाफ़ एक आन्दोलन इसी दौरांत शुरू हुयी और अलाहाबाद उच्च न्यायालय १९७५ को इंदिरा की चुनाव रद्द की। अपने पड़ से इस्तीफा न देकर वह इमर्जेंसी देक्लैर किया। जो नेता उनके ख़िलाफ़ था उन सब को जेल भेजा और माध्यमों पर सेम्सरशिप लगाई। १९७७ को उन्होंने इमरजेंसी हटाकर चुनाव की घोषणा की। लेकिन वह कोंग्रस पार्टी चुनाव हारी। मोरारजी देसाई नए प्रधानमन्त्री चुने। जनता पार्टी में हुयी अंतरूनी विरोधों के कारण इसी सरकार गिरी और दो साल बाद फ़िर चुनाव की घोषणा की।इंदिरा के नेत्रुत्व में लड़े कोंग्रस पार्टी चुनाव जीतकर अपना सरकार बनाने में सफल हुयी। १९८० में तीसरी बार प्रधानमन्त्री बने इंदिराजी को ये मुश्किलों का समय था। उनके बेटा संजय गांधी का विमान दुर्घटना में मृत्यु हुयी और राज्य के विभिन्न हिस्सों में साम्प्रदायिक और प्रादेशिक मुद्दों पर समस्यायें पैदा हुयी। पंजाब अकालियों के प्रक्षोभ को लड़ने केलिए इंदिरा ने फौज को सुवर्ण क्षेत्र भेजने का निर्णय किया। सुवर्ण क्षेत्र के अन्दर फौजियोम को भेजने का निर्णय सिखों का विरोध का कारण हुआ। विरोधियों में उनके अंगरक्षक भी थे। १९८४ ओक्टोबर ३१ को जब वह अपने घर से बाहर आते वक्त उनकी अम्ग्रक्ष्कोम में से दो, उनके ख़िलाफ़ गोलियां मारकर उनकी हत्या की।

5 Nov 2009

रानी लक्ष्मीबाई


झांसी की राणी लक्ष्मीबाई का जन्म १९ नवम्बर १८२८ वाराणसी जिल्ले के भदैनी नगर में हुआ। मराठा शासित झांसी की राणी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम वनिता थी रानी लक्ष्मीबाई । उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था। उनके पिता मोरोपंत एक साधारण ब्राह्मण और पेशवा बाजीराव की सेवक थे। उनकी बचपन में ही माँ की मृत्यु हो गई। घर में अकेले बेटी को मोरोपंत ने दरबार लेकर गई।

इनका विवाह सन १८४२ में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।सन १८५३ में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु २१ नवंबर १८५३ में हो गयी । दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया ।

झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिन्सा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया । इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया । 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया । रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया । 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झांसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया । दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर् लिया । परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अन्ग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी । रानी झांसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।

30 Oct 2009

विमोचन


करिम्पा सरकारी हायर सेकंतरी स्कूल के हिन्दी मंच सदस्यों द्वारा बनाई गई हिन्दी मागासिन सरिता का विमोचन करिम्पा पंचायत के विपक्ष नेता श्री के के चंद्रन ने किया । हिन्दी अध्यापक श्री के पि सदाशिवन और मागासिन एडिटोरियल विभाग के सभी बच्चों ने इसी अवसर पर उपस्थित थे।

22 Oct 2009

स्वाभिमान का उदघाटन किया गया


सरकारी हैस्कुल करिम्बा के अई टी एवं हिन्दी विभाग संयुक्त रूप से तैयार किए गए स्वाभिमान नामक ब्लॉग का उदघाटन मन्नार्कड़ ब्लोक पंचायत के सदस्य श्री चामी मास्टर ने की । प्रस्तुत समारोह में करिम्बा ग्राम पंचायत के अध्यक्ष श्रीमती मेरी टीचर ने भी भाग ली । स्कुल के प्रिंसिपल श्री कुन्हुन्नी मास्टर प्रधानाध्यापिका श्रीमती लिलाम्मा वर्गिस और अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने भी उपस्थित थे ।

21 Oct 2009

आज का मानव- एक आस्वादन

जगदीश चंद्रजीत
आधुनिक युवा पीढी के कवियों में श्री जगदीश चंद्रजीतका अपना एक विशिष्ट स्थान हैं। आधुनिक हिन्दी कवियों में समाजवादी चेतना को लेकर कविता करनेवालों में जगदीश चंद्रजीत का नाम आता हैं। आज का मानव कविता में कवि ने आधुनिक सभ्यता से प्रभावित स्वार्थी एवं व्यक्तिवादी मानव की ह्रुदयशून्यता पर प्रकाश डाला हैंऔद्योगीकरण , नागरिक सभ्यता , संयुक्त परिवार, का विघटन और अणुपरिवार का आविर्भावसंबंधों की शिथिलता आदि बातों ने आधुनिक मनुष्य की चेतना को एकदम बदल डालाउसने सभी मानवीय गुणोंको खोयाआधुनिक मानव का लक्ष्य अपने अणुपरिवार के दो चार सदस्यों की उदर पूर्ति मात्र हैं
आधुनिक मनुष्य में स्नेह, दया, त्याग , ममता, आदि गुण नहीं हैंवह केवल अपने परिवार की रक्षा ही आपना एकमात्र कर्तव्य मानता हैंकवि ने कहा कि इस स्वार्थता छोड़ देंसमाज के प्रति अपने जो दायित्व हैं, वह आज का मानव खूब समझ लें




18 Oct 2009

सूरदास


जन्म

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख ।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।।

इसका अर्थ विद्वानों ने संवत् १६०७ वि० माना है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री बल्लभाचार्य थे -

सूरदास का जन्म सं० १५३५ वि० के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ वि० के मध्य स्वीकार किया जाता है।

रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० वि० के आसपास माना जाता है।

श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।

सूरदास की आयु "सूरसारावली' के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी। 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। "आइने अकबरी' में (संवत् १६५३ वि०) तथा "मुतखबुत-तवारीख' के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।



जन्म स्थान

अधिक विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।

खंजन नैन रुप मदमाते ।
अतिशय चारु चपल अनियारे,
पल पिंजरा न समाते ।।
चलि - चलि जात निकट स्रवनन के,
उलट-पुलट ताटंक फँदाते ।
"सूरदास' अंजन गुन अटके,
नतरु अबहिं उड़ जाते ।।

क्या सूरदास अंधे थे ?

सूरदास श्रीनाथ भ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला', श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता' आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।

श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - ""सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।'' डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - ""सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।

सूरदास की रचनाएँ


सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -

१ सूरसागर
२ सूरसारावली
३ साहित्य-लहरी
४ नल-दमयन्ती और
५ ब्याहलो।

उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।

सूरसागर

सूरसागर में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् १६५८ वि० से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा (मेवाड़) के "सरस्वती भण्डार' में सुरक्षित पायी गई हैं।

सूरसागर सूरदासजी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें प्रथ्#ंम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग "कृष्ण की बाल-लीला' और "भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

सूरसागर की सराहना करते हुए डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - ""काव्य गुणें की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है। वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है।'' दार्शनिक विचारों की दृष्टि से "भागवत' और "सूरसागर' में पर्याप्त अन्तर है।

सूर सारावली

इसमें ११०७ छन्द हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक "वृहद् होली' गीत के रुप में रचित हैं। इसकी टेक है - ""खेलत यह विधि हरि होरी हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात।'' इसका रचना-काल संवत् १६०२ वि० निश्चित किया गया है, क्योंकि इसकी रचना सूर के ६७वें वर्ष में हुई थी।


साहित्य लहरी

यह ११८ पदों की एक लघु रचना है। इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम सूरजदास है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है। इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह संवत् विक्रमी में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रन्थ विशुद्ध श्रृंगार की कोटि में आता है

काव्य-रस एव समीक्षा


सूरदास जी वात्सल्यरस के सम्राट माने गए हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसो का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। बालकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने अन्तःचक्षुओं से इतने सुन्दर, मोहक, यथार्थ एवं व्यापक रुप में देखा था, जितना कोई आँख वाला भी नहीं देख सकता। वात्सल्य का वर्णन करते हुए वे इतने अधिक भाव-विभोर हो उठते हैं कि संसार का कोई आकर्षण फिर उनके लिए शेष नहीं रह जाता।

सूर ने कृष्ण की बाललीला का जो चित्रण किया है, वह अद्वितीय व अनुपम है। डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है - ""संसार के साहित्य की बात कहना तो कठिन है, क्योंकि वह बहुत बड़ा है और उसका एक अंश मात्र हमारा जाना है, परन्तु हमारे जाने हुए साहित्य में इनी तत्परता, मनोहारिता और सरसता के साथ लिखी हुई बाललीला अलभ्य है। बालकृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी होती है, न अलंकार की, न भावो की, न भाषा की।
......अपने-आपको पिटाकर, अपना सर्व निछावर करके जो तन्मयता प्राप्त होती है वही श्रीकृष्ण की इस बाल-लीला को संसार का अद्वितीय काव्य बनाए हुए है।''

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनकी बाललीला-वर्णन की प्रशंसा में लिखा है - ""गोस्वामी तुलसी जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखा-देखी बहुत विस्तार दिया सही, पर उसमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रुप-वर्णन की ही प्रचुरता रही। बाल-चेष्टा का निम्न उदाहरण देखिए -

मैया कवहिं बढ़ेगी चोटी ?
कितिक बार मोहि दूध पियत भई,
यह अजहूँ है छोटी ।
तू जो कहति "बल' की बेनी
ज्यों ह्मववै है लाँबी मोटी ।।

खेलत में को काको गोसैयाँ
जाति-पाँति हमतें कछु नाहिं,
न बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातें,
अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।

सोभित कर नवनीत लिए ।
घुटरुन चलत रेनु तन मंडित,
मुख दधि लेप किए ।।

सूर के शान्त रस वर्णनों में एक सच्चे हृदय की तस्वीर अति मार्मिक शब्दों में मिलती है।

कहा करौ बैकुठहि जाय ?
जहँ नहिं नन्द, जहाँ न जसोदा,
नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय ।
जहँ नहिं जल जमुना को निर्मल
और नहीं कदमन की छाँय ।
परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी,
ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय ।

कुछ पदों के भाव भी बिल्कुल मिलते हैं, जैसे -

अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुंदर भेलि मधाई ।
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई ।।

भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल छल लोचन पानि ।
अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि ।।
राधा सयँ जब पनितहि माधव, माधव सयँ जब राधा ।
दारुन प्रेम तबहि नहिं टूटत बाढ़त बिरह क बाधा ।।
दुहुँ दिसि दारु दहन जइसे दगधइ,आकुल कोट-परान ।
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि विद्यापति भान ।।

इस पद्य का भावार्थ यह है कि प्रतिक्षण कृष्ण का स्मरण करते करते राधा कृष्णरुप हो जाती हैं और अपने को कृष्ण समझकर राधा क वियोग में "राधा राधा' रटने लगती हैं। फिर जब होश में आती हैं तब कृष्ण के विरह से संतप्त होकर फिर 'कृष्ण कृष्ण' करने लगती हैं।

सुनौ स्याम ! यह बात और काउ क्यों समझाय कहै ।
दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे कै जो सहै ।।
जब राधे, तब ही मुख "माधौ माधौ' रटति रहै ।
जब माधो ह्मवै जाति, सकल तनु राधा - विरह रहै ।।
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै ।
सूरदास अति बिकल बिरहिनी कैसेहु सुख न लहै ।।

सूरसागर में जगह जगह दृष्टिकूटवाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। "सारंग' शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए -

सारँग नयन, बयन पुनि सारँग,
सारँग तसु समधाने ।
सारँग उपर उगल दस सारँग
केलि करथि मधु पाने ।।

पच्छिमी हिन्दी बोलने वाले सारे प्रदेशों में गीतों की भाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आसपास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाए जाते थे, यह हम खुसरो (संवत् १३४०) के गीतों में दिखा आए हैं। कबीर (संवत् १५६०) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी "साखी' की भाषा तो""सधुक्कड़ी' है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित व्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है -

है हरिभजन का परवाँन ।
नीच पावै ऊँच पदवी,
बाजते नीसान ।
भजन को परताप ऐसो
तिरे जल पापान ।
अधम भील, अजाति गनिका
चढ़े जात बिवाँन ।।
नवलख तारा चलै मंडल,
चले ससहर भान ।
दास धू कौं अटल
पदवी राम को दीवान ।।
निगम जामी साखि बोलैं
कथैं संत सुजान ।
जन कबीर तेरी सरनि आयौ,
राखि लेहु भगवान ।।
(कबीर ग्रंथावली)

है हरि-भजन को परमान ।
नीच पावै ऊँच पदवी,
बाजते नीसान ।
भजन को परताप ऐसो
जल तरै पाषान ।
अजामिल अरु भील गनिका
चढ़े जात विमान ।।
चलत तारे सकल, मंडल,
चलत ससि अरु भान ।
भक्त ध्रुव की अटल पदवी
राम को दीवान ।।
निगम जाको सुजस गावत,
सुनत संत सुजान ।
सूर हरि की सरन आयौ,
राखि ले भगवान ।।
(सूरसागर)

कबीर की सबसे प्राचीन प्रति में भी यह पद मिलता है, इससे नहीं कहा जा सकता है कि सूर की रचनाओं के भीतर यह कैसे पहुँच गया।

राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। उसका एक पद देखिए -

मुरली बजाय रिझाय लई मुख मोहन तें ।
गोपी रीझि रही रसतानन सों सुधबुध सब बिसराई ।
धुनि सुनि मन मोहे, मगन भईं देखत हरि आनन ।
जीव जंतु पसु पंछी सुर नर मुनि मोहे, हरे सब के प्रानन ।
बैजू बनवारी बंसी अधर धरि बृंदाबन चंदबस किए सुनत ही कानन ।।

जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदासजी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदासजी का। वास्तव में ये हिंदी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्तशिरोमणि कवियों की वाणी में पाई जाती है वह अन्य कवियों में कहां। हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ। इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया।

उत्तम पद कवि गंग के,
कविता को बलबीर ।
केशव अर्थ गँभीर को,
सुर तीन गुन धीर ।।

इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है -

किधौं सूर को सर लग्यो,
किधौं सूर की पीर ।
किधौं सूर को पद लग्यो,
बेध्यो सकल सरीर ।।

यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक ओर किसी कवि की नहीं।

काहे को आरि करत मेरे मोहन !
यों तुम आँगन लोटी ?
जो माँगहु सो देहुँ मनोहर,
य है बात तेरी खोटी ।।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो
हाथ लकुट लिए छोटी ।।

सोभित कर नवनीत लिए ।
घुटुरुन चलत रेनु - तन - मंडित,
मुख दधि-लेप किए ।।

सिखवत चलन जसोदा मैया ।
अरबराय कर पानि गहावति,
डगमगाय धरै पैयाँ ।।

पाहुनि करि दै तरक मह्यौ ।
आरि करै मनमोहन मेरो,
अंचल आनि गह्यो ।।
व्याकुल मथत मथनियाँ रीती,
दधि भ्वै ढरकि रह्यो ।।

बालकों के स्वाभाविक भावों की व्यंजना के न जाने कितने सुंदर पद भरे पड़े हैं। "स्पर्धा' का कैसा सुंदर भाव इस प्रसिद्ध पद में आया है -

मैया कबहिं बढ़ैगी चीटी ?
कितिक बार मोहिं दूध पियत भई,
वह अजहूँ है छोटी ।
तू जो कहति "बल' की बेनी ज्यों
ह्मवै है लाँबी मोटी ।।

इसी प्रकार बालकों के क्षोभ के यह वचन देखिए -

खेलत में को काको गोसैयाँ ?
जाति पाँति हम तें कछु नाहिं,
न बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातें,
अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।।

वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं। गोकुल में जब तक श्रीकृष्ण रहे तब तक का उनका सारा जीवन ही संयोग पक्ष है।

करि ल्यौ न्यारी,
हरि आपनि गैयाँ ।
नहिंन बसात लाल कछु तुमसों
सबै ग्वाल इक ठैयाँ ।

धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी ।
एक धार दोहनि पहुँचावत,
एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी ।।
मोहन कर तें धार चलति पय
मोहनि मुख अति ह छवि बाढ़ी ।।

राधा कृष्ण के रुप वर्णन में ही सैकड़ों पद कहे गए हैं निमें उपमा, रुपक और उत्प्रेक्षा आदि की प्रचुरता है। आँख पर ही न जाने कितनी उक्तियाँ हैं

देखि री ! हरि के चंचल नैन।
खंजन मीन मृगज चपलाई,
नहिं पटतर एक सैन ।।
राजिवदल इंदीवर, शतदल,
कमल, कुशेशय जाति ।
निसि मुद्रित प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसे दिन राति ।।
अरुन असित सित झलक पलक प्रति,
को बरनै उपमाय ।
मनो सरस्वति गंग जमुन
मिलि आगम कीन्हों आय ।।

नेत्रों के प्रति उपालंभ भी कहीं कहीं बड़े मनोहर हैं -

सींचत नैन-नीर के, सजनी ! मूल पतार गई ।
बिगसति लता सभाय आपने छाया सघन भई ।।
अब कैसे निरुवारौं, सजनी ! सब तन पसरि छई ।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं -

उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,
किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की ।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी ।

इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से, हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्कपद्धति पर नहीं - किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं। जबउद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रेककर इस प्रकार पूछती हैं -

निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर हँसि समुझाय,
सौह दै बूझति साँच, न हाँसी।

और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करक तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है।

सुनिहै कथा कौन निर्गुन की,
रचि पचि बात बनावत ।
सगुन - सुमेरु प्रगट देखियत,
तुम तृन की ओट दुरावत ।।

उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह तो बताओ -

रेख न रुप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत ।
अपनी कहौ, दरस ऐसे को तु कबहूँ हौ पावत ?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ?
नैन विसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत ?
तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत ?
सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत ?

अन्त में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुण में ही अधिक रस जान पड़ता है -

ऊनो कर्म कियो मातुल बधि,
मदिरा मत्त प्रमाद ।
सूर श्याम एते अवगुन में
निर्गुन नें अति स्वाद ।।

कबीरदास


जीवन परिचय


महात्मा कबीर का जन्म-काल

महात्मा कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अधंकारमय हो रहा था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाएँ सोचनीय हो गयी थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धमार्ंधता से जनता त्राहि- त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म- बल का ह्रास हो रहा था। जनता के भीतर भक्ति- भावनाओं का सम्यक प्रचार नहीं हो रहा था। सिद्धों के पाखंडपूर्ण वचन, समाज में वासना को प्रश्रय दे रहे थे।

नाथपंथियों के अलखनिरंजन में लोगों का ऋदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी- मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर का प्रार्दुभाव हुआ।

जन्म

महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। "कबीर कसौटी' में इनका जन्म संवत् १४५५ दिया गया है। ""भक्ति- सुधा- बिंदु- स्वाद'' में इनका जन्मकाल संवत् १४५१ से संवत् १५५२ के बीच माना गया है। ""कबीर- चरित्र- बाँध'' में इसकी चर्चा कुछ इस तरह की गई है, संवत् चौदह सौ पचपन (१४५५) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, एक प्रकाश रुप में सत्य पुरुष काशी के "लहर तारा'' (लहर तालाब) में उतरे। उस समय पृथ्वी और आकाश प्रकाशित हो गया। समस्त तालाब प्रकाश से जगमगा गया। हर तरफ प्रकाश- ही- प्रकाश दिखने लगा, फिर वह प्रकाश तालाब में ठहर गया। उस समय तालाब पर बैठे अष्टानंद वैष्णव आश्चर्यमय प्रकाश को देखकर आश्चर्य- चकित हो गये। लहर तालाब में महा- ज्योति फैल चुकी थी। अष्टानंद जी ने यह सारी बातें स्वामी रामानंद जी को बतलायी, तो स्वामी जी ने कहा की वह प्रकाश एक ऐसा प्रकाश है, जिसका फल शीघ्र ही तुमको देखने और सुनने को मिलेगा तथा देखना, उसकी धूम मच जाएगी।

एक दिन वह प्रकाश एक बालक के रुप में जल के ऊपर कमल- पुष्पों पर बच्चे के रुप में पाँव फेंकने लगा। इस प्रकार यह पुस्तक कबीर के जन्म की चर्चा इस प्रकार करता है :-

""चौदह सौ पचपन गये, चंद्रवार, एक ठाट ठये।
जेठ सुदी बरसायत को पूनरमासी प्रकट भये।।''

जन्म स्थान

कबीर ने अपने को काशी का जुलाहा कहा है। कबीर पंथी के अनुसार उनका निवास स्थान काशी था। बाद में, कबीर एक समय काशी छोड़कर मगहर चले गए थे। ऐसा वह स्वयं कहते हैं :-

""सकल जनम शिवपुरी गंवाया।
मरती बार मगहर उठि आया।।''

कहा जाता है कि कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। कबीर वहाँ जाकर दु:खी थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे।

""अबकहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।''

कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वह चाहते थे कि आपकी मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे :-

""जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।''

कबीर के माता- पिता

कबीर के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। "नीमा' और "नीरु' की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप- संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है। कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था।

एक जगह कबीर ने कहा है :-

"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'

कबीर के एक पद से प्रतीत होता है कि वे अपनी माता की मृत्यु से बहुत दु:खी हुए थे। उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था। वह एक जगह कहते हैं कि उसके पिता बहुत "गुसाई' थे। ग्रंथ साहब के एक पद से विदित होता है कि कबीर अपने वयनकार्य की उपेक्षा करके हरिनाम के रस में ही लीन रहते थे। उनकी माता को नित्य कोश घड़ा लेकर लीपना पड़ता था। जबसे कबीर ने माला ली थी, उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला। इस कारण वह बहुत खीज गई थी। इससे यह बात सामने आती है कि उनकी भक्ति एवं संत- संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट था।

स्री और संतान

कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या "लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।

बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।

कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात- दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं :-

सुनि अंघली लोई बंपीर।
इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।

जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-

"कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।'

यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है :-

""नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।''


संत तुलसीदास



तुलसीदास (Tulsidas)


तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में स्थित राजापुर नामक ग्राम में संवत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन हुआ था. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी देवी था. ऐसा कहा जाता है कि उनका जन्म माता के गर्भ में 12 महीने रहने के बाद हुआ था और जन्मते ही उनके मुख से रुदन के स्थान पर “राम” शब्द का उच्चारण हुआ था, उनके मुख में पूरे बत्तीस दाँत थे तथा उनकी कद काठी पाँच वर्ष के बालक के समान था. इन सारी विचित्रताओं के कारण पिता अमंगल की आशंका से भयभीत हो गये. अनिष्ट की आशंका से माता ने दशमी की रात को बालक को दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया और दूसरे दिन स्वयं संसार से चल बसीं. दासी ने जिसका नाम चुनियाँ था बालक का पालन-पोषण बड़े प्यार से किया. साढ़े पाँच वर्ष की उम्र की में दासी चुनियाँ की भी मृत्यु हो गई और बालक अनाथ हो गया.

रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्द जी की दृष्टि इस बालक पर पड़ी और वे उसे अपने साथ अयोध्या ले जा कर उसका लालन-पालन करने लगे. बालक का नाम रामबोला रखा गया. रामबोला के विद्याध्ययन की भी व्यवस्था उन्होंने कर दिया. बालक तीव्र बुद्धि तथा विलक्षण प्रतिभा वाला था अतः शीघ्र ही समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया. काशी में शेष सनातन से उन्होंने वेद वेदांग की शिक्षा प्राप्त की.

सभी विषयों में पारंगत हो कर तथा श्री नरहर्यानन्द की आज्ञा ले कर वे अपनी जन्मभूमि वापस आ गये. उनका परिवार नष्ट हो चुका था. उन्होंने अपने पिता तथा पूर्वजों का विधिपूर्वक श्राद्ध किया और वहीं रह कर लोगों को रामकथा सुनाने लगे. संवत् १५८३ में रत्नावली नामक एक सुंदरी एवं विदुषी कन्या से उनका विवाह हो गया और वे सुखपूर्बक जीवन यापन करने लगे. रामबोला को अपनी पत्नी से अत्यंत प्रेम था. एक बार जब रत्नावली को उसका भाई मायके लिवा गया तो वे वियोग न सह पाये और पीछे पीछे अपने ससुराल तक चले गये. रत्नावली को उनकी यह अति आसक्ति अच्छी नहीं लगी उन्हें इन शब्दों में धिक्काराः

लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ|
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति|
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥

(आपको लाज नहीं आई जो दौड़ते हुये साथ आ गये. हे नाथ, अब मैं आपसे क्या कहूँ ऐसे प्रेम को धिक्कार है. यदि इससे आधी प्रीति भी आपकी भगवान श्रीरामचंद्रजी के चरणों के प्रति होती तो इस संसार के भय से आप मुक्त हो जाते अर्थात् मोक्ष मिल जाता.)

रत्नावली के ये शब्द रामबोला के मर्म को छू गये. उन्होंने अब अपना पूरा ध्यान रामभक्ति में लगाना शुरू कर दिया. वे प्रयाग आ गये, साधुवेष धारण कर लिया. तीर्थाटन, भक्तिभाव व उपासना में जीवन को लगा दिया. उन्हें काकभुशुण्डिजी और हनुमान जी के दर्शन प्राप्त हुये. हनुमान जी की ही आज्ञा से उन्होंने अपना महाकाव्य “रामचरित मानस” लिखा और “संत तुलसीदास” के नाम से प्रसिद्धि पाई.

संवत् 1631 के रामनवमी के दिन से उन्होंने “रामचरित मानस” लिखना आरंभ करके 2 वर्ष 7 माह 26 दिन पश्चात् संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन उसे पूर्ण किया. “रामचरित मानस” एक अमर ग्रंथ है जिसे कि हर हिंदू बड़े चाव से रखता और पढ़ता है.

संवत् 1680 में “संत तुलसीदासजी” ने अपने नश्वर शरीर का परित्याग किया

12 Oct 2009

ओजोण शोषण

एक साधाराण ऑक्सीजन कण में दो ऑक्सीजन परमाणु होते हैं। एक ओजोण कण में तीन ऑक्सीजन परमाणु हैं। रोशनाई रासायनिक परिचालन और बिजली की निर्वहण का फलस्वरूप हे प्रकृति में पैदा होने वाला ये ओजोण । वातावरण में देखनेवाला एक पतला परत हैं ओजोण और इससे भूमि सुरक्षित हैं । यह सूर्य की पाराबैंगनी किरनों के दुष्य भाव से पृथ्वी के जीव जन्तुवों और वनास्पतिओ की रक्षा करती हैं ।
आज इसका शोषण हो रहा हैं इसका कारण अनेक हैं । सन १९७९ से ही पहचान लिया हे कि सी. एफ . सी ओजोण परत को पृथककरण करता हैं । ये सी एफ सी - दियोदारांत स्प्रे आदि में हैं। इसके अलावा रफ्रिजिरेटर ए .सी आदि से भी हैं । ये वातावरण में फैलता हैं। ऊपर आते समय सूर्य की पाराबैंगनी किरणों से इस का पृथककरण हो रहा हैं। ताब स्वतंत्र होनेवाला क्लोरिन परमाणु ओजोण के एक ऑक्सीजन परमाणु में मिलजुलकर क्लोरिन ओक्सैड पैदा हो जाता हैं । इससे ओजोण ऑक्सीजन के रूप में बदल जाता हैं । इस प्रकार ओजोण परत का शोषण हो रहा हैं । ओजोण परत के शोषण से अधिकाधिक पराबैंगानिक किरण भूमि पर आता हैं। इससे गर्मी बढ़ती हैं , मौसम में परिवर्तन आता हैं। जीवियों के जीवन चक्र ही बदल जा रही हैं। अर्बुद , मोतियाबिंद आदि बिमारियाम फ़ैल जाती हैं।
ओजोण शोषण से सम्बन्धित कयी गोष्ठियाम चली। लेकिन इसमें लिए गए परामरशोम की अधिशासन में कई राष्ट्रों ने शोर न दिया। सी.एफ.सी के बदल और कोई चीज़ नही हैं। इसलिए इस का उपयोग आज बढती जा रही हे। अथवा इसका उपयोग बंद कर दिया जाएँ तो भी वातावरण से इस का तिरोभाव सौ वर्षों के अन्दर सम्भव नहीं हैं।

श्रीजा रवि
कक्षा १० सी

11 Oct 2009

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

जन्म :
२१ फरवरी १८९६ को पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में।

मूल निवास :
उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले का गढ़कोला नामक गांव।

शिक्षा :
हाई स्कूल तक हिन्दी संस्कृत बंगला व अंग्रेज़ी का स्वतंत्र अध्ययन।

कार्यक्षेत्र :
१९१८ से १९२२ तक महिषादल राज्य की सेवा की। उसके बाद से संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य। १९२२-२३ में समन्वय (कलकत्ता) का संपादन। १९२३ के अगस्त से मतवाला के मंडल में। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहां से निकलने वाली मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य।

वे प्रसाद पंत और महादेवी के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के एक प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरूप से कविता के कारण ही है।

१५ अक्तूबर १९६१ को इलाहाबाद में उनका निधन हुआ।

प्रमुख कृतियाँ :
काव्यसंग्रह : परिमल, गीतिका, द्वितीय अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, आराधना, गीत गुंज, सांध्य काकली।
उपन्यास : अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
कहानी संग्रह : लिली, चतुरी चमार।
निबंध : रवींद्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह।
पुराण कथा : महाभारत


9 Oct 2009

तोड़ती पत्थर - एक आस्वादन

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिन्दी साहित्य जगत के छायावादी कवि हैंउनकी एक प्रमुख कविता हैं - तोडती पत्थर। इस में कवि समाज की असमानता की और संकेत करता हैं
इलहाबाद के पथ पर कठिन धुप में बैठ कर एक तोडती पत्थर अपना काम कर रही हैंसाफ़ कपडा पहनेवाले कवि को देखकर वह अपनी निर्भाग्य के बारे में सोचती हैं से अपने काम में मग्न हो जाती हैं
इस कविता पाठकों को गहराई में सोचने की प्रेरणा देती हैंइस कविता में एक तोडती पत्थर की दयनीय स्थिती का चित्र हैंयह दिलचस्पी हैंदूसरों की रनि वह नहीं चाहतीअपनी दुर्दशा में भी वह अपनी पैरों पर खडे होने की कोशिश कर रहीधनि और गरीब के बीच का अन्तर हैं - यह महल

स्वागत

ये करिम्पा गवा हायर सेक्कण्टरी स्कूल हिन्दी विभाग का ब्लॉग हे आप सबको हम स्वागत करते हैं
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